आजाद पंछी हूँ पर वक्त की कैद में हूँ।
निकाल सको तो निकाल दो कोई,
किसी रीत, किसी दरिया, किसी पहर में हुँँ मैं।
न जाने किस गली किस शहर में हु मैं।
न पीछे जाने का मन, न आगे जाने की चाह,
इस कदर इस आसमान के कहर में हूँ मैं।
उस वक्त के जहाँ में हूँ।
उसी सोंच, वही लोग, उसी जगह की खैर में हूँ मैं।
जोर आवाज हूँ पर शोर की कैद में हूँ।
सुन सको तो सुन लो,
किसी गीत, किसी चीख,किसी होड़ में हूँ मैं।
न जाने किस हवा, किस दौर में हूँ मैं।
न कहने का मन है, न चुप रहने की चाह,
इस कदर इस दुनिया के असर में हूँ मैं।
उस शोर की तरंग में हूँ।
उसी सुर, उसी ताल, उसी गले की पहचान हूँ मैं।
मन से फ़क़ीर हूँ पर शब्द की कैद में हूँ।
पहचान सको तो पहचान लो,
किसी वाक्य, किसी कलम, किसी लिखावट में हूँ मैं।
न जाने किस किताब, किस कथन में हूँ मैं।
न रोकने का मन, न रचने की चाह,
इस कदर इस इतिहास के पन्नो में हूँ मैं।
उस शब्द के जहन में हूँ।
उसी कविता, उसी कहानी, उसी स्याही के साहित्य में हूँ मैं।
खुदी में हूँ पर लोगों की कैद में हूँ।
ढूंढ सको तो ढूंढ लो,
किसी चाल, किसी हाल, किसी रोक में हूँ मैं।
न जाने किस दौड़ की होड़ में हूँ मैं।
न छोड़ने का मन, न चलने की चाह,
इस कदर इस संसार की गोद में हूँ मैं।
उन लोगों के शहर में हूँ।
उसी सोंच, उसी तौर-तरीकों, उसी नजर की सैर में हूँ मैं।